मिल मर गयी एमहल ज़िंदा है

Mar 13 2019

 

मध्य प्रदेश की राजनीति में आजादी से लेकर बीस साल पहले तक श्मिलश् और श्महलश् का दखल चला करता था ण्समय की मार मिलों को निगल गयी लेकिन मौन का वजूद आज भी जस का तस है ण्अब भी अलग.अलग हिस्सों में मौजूद छोटे.बड़े महल सूबे की सियासत की दशा और दिशा तय करते हैंएइस लोकसभा चुनाव में महल जहाँ.तहाँ अलग.अलग भूमिका में खड़े नजर आएंगे ण्
मध्यप्रदेश के ग्वालियर.चंबल और मालवा अंचल में एक ज़माना था जब कपड़ा मिलों का राजनीति में सीधा दखल थाएचूंकि    उस समय कोई मजबूत राजनितिक विपक्ष  नहीं था इसलिए सत्तारूढ़ कांग्रेस हरदम इन मिलों की मुठ्ठी में रहती थी बीसवीं सदी के अंत तक पूरे देश में कपड़ा उद्योग का समापन हुआ तो मध्यप्रदेश की कपड़ा मिलों ने भी दम तोड़ना शुरू कर दिया और आज सियासत में इन मिलों का कोई दखल बाक़ी नहीं रह गया हैण् सूबे की सियासत को प्रभावित करने वाली दूसरी ताकत के रूप में महल थेण्इन महलों का अपने.अपने इलाके में खासा वजूद थाण्महाराजा ही नहीं छोटे.छोटे राजा तक आसपास की राजनीति और चुनावी नतीजों को प्रभावित करते थे ण्
ग्वालियर.चंबल के सिंधिया घराने का असर विदिशाएउज्जैन से लेकर नीमच तक थाएमालवा में होल्कर थे एबुंदेलखंड में तो कदम.कदम पर राजा थे हीएबघेलखण्ड में भी अनेक छोटे बड़े महल राजनीति को प्रभावित करने का माद्दा रखते थे ण्और अनेक महलों ने तो सत्ता में बढ़.चढ़कर हिस्सा लिया ण्ग्वालियर का महल इनमें आज तक अपना वजूद बनाये हुए है एएहालांकि दूसरे   महलों का असर अब धीरे.धीरे काम हो रहा है ण्
आजादी के फौरन बाद और मध्यप्रदेश का गठन होने से लेकर 1980  तक इन महलों ने प्रदेश की राजनीति में सीधा दखल रखा और जो चाहा सो कियाण् विधानसभा और लोकसभा के प्रत्याशियों का चयन इन महलों की सहमति के बिना शायद ही कभी हुए हों ण्महल जिस राजनीतिक दल के सर पर हाथ रख देते थे उसका सत्तारूढ़ होना आसान हो जाता था ण्महलों का रूठना राजनितिक दलों के लिए आफत जैसा थाण् पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र ने महलों को नाराजगी का खामियाजा खूब भुगता था ण्
लोकचेतना और कानूनों में लगातार संशोधनों के बाद महलों का प्रभाव क्षेत्र लगातार सिकुड़ता गया फिर भी समाप्त नहीं हुआ ण्मौजूदा परिदृश्य में भी महल हर दल की सियासत के लिए महत्वपूर्ण हैंण् लोकतांत्रिक होने का दम्भ पालने वाले सभी राजनितिक दल भले ही सामंतवाद का विरोध करते हों किन्तु किसी का भी काम इनके बिना नहीं चलता ण्कांग्रेस हो या भाजपा सभी को महल का आसरा चाहिए ण्पिछले साल यानि तीन माह पूर्व हुए विधानसभा चुनाव में तो ग्वालियर के महल का चेहरा ही सबसे आगे था एऔर माना जाता है की सूबे में कांग्रेस की सरकार बनवाने में ग्वालियर के महल की भूमिका प्रमुख रही ण्
अब मई में होने वाले लोकसभा चुनाव में महलों का प्रतिनिधित्व करने वाले ज्योतिरादित्य सिंधियाएदिग्विजय सिंह और अजय सिंह के अलावा अनेक छोटे.बड़े राजा कस.बल लगा रहे हैं ताकि नतीजे प्रभावित कर सकेंण् भाजपा को भी इन्हीं राजघरानों का सहारा है एलेकिन दुर्भाग्य से भाजपा के पास महल का कोई नामचीन्ह चेहरा नहीं है ण्सिंधिया और दिग्विजय सिंह तो सीधे चुनावी समर में उतरते ही आये हैं ण्दिग्विजय सिंह की लम्बे समय बाद वापसी होने की उम्मीद है एलेकिन उन्होंने अपने परिवार के दो सदस्यों को सियासत में स्थापित कर ही दिया है ण्
प्रदेश की सियासत को मिलों से मुक्ति के बाद महलों से मुक्ति दिलाने के बारे में न कोई सोचता है और न साहस करता हैएक्योंकि सब जानते हैं की अब मिलों में सियासत को प्रभावित करने की ताकत नहीं रही ण्मिलें न अब अपने प्रत्याशी मैदान में उतारतीं है और न ही किसी विशेष राजनितिक दल के साथ खड़ी होती हैंएउनके लिए तो सत्तारूढ़ दल ही महत्वपूर्ण होते हैंएजो सत्ता में  होता है मिलों का सलाम उनके लिए होता है ण्वैसे आप चाहें तो मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ को ही मिलों का प्रतिनिधि मान सकते हैं लेकिन वे हैं नहीं 
मुझे लगता है की मिलों के खात्मे के बाद महल भी समाप्त हो गए होते तो सूबे की सियासत का चेहरा शायद अधिक निखर जाता लेकिन ऐसा हुआ नहीं और हो भी नहीं सकता एअब महल ही हैं जो इस सूबे की सियासत को देश की मुख्यधारा से जोड़े रख सकते हैं एक्योंकि आम आदमी का प्रतिनिधित्व कर चुके प्रदेश के आधा दर्जन मंत्री केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहकर भी सूबे की पहचान नहीं बन पाए ण्उनके नाम से सूबे को पहचान नहीं मिलीण्ये हालांकि दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन है तो है ण्